Thursday, November 22, 2012

गीता - एक आवाज़, एक परवाज़, एक अंदाज़ या एक राज़?

 गीता-सार

फ़रीदपुर से एक लोरी  धीमे-धीमे सुरों में, धीरे-धीरे बम्बई (मुंबई) के कानों में रस घोलने लगी।
आजा री निंदिया - नई माँ (1946)

कहते हैं बच्चे भगवान् का रूप होते हैं, तो लोरी भी तो भजन का ही रूप हुई न? वो रसमय लोरी भजन में कब और कैसे परिवर्तित हो गई - पता ही नहीं चला!
घूँघट के पट खोल - जोगन  (1950)

और भजन जब दिल से गाया जाए तो एक इश्क़ बन जाता है। इश्क़ - जो ख़ुदा का ही एक रूप है, जब सर चढ़ता है तो बस!
मस्त चाँदनी झूम रही है - प्यार की बातें (1951)

और जब इश्क़  हो जाता है तो फिर ये तूफ़ान कहाँ रुकता है?
कैसे रोकोगे ऐसे तूफ़ान को - आनंद मठ (1952)

रॉयचौधरी अब दत्त हो चुकी थी और वो - वो, जो एक आवाज़ थी अब परवाज़ पकड़  चुकी थी।
  हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा दें तो? - प्यासा (1957)

और प्यार जब हाथों से फिसलता है न तो  बहौत तकलीफ़ देता है
न जाओ सैयाँ छुड़ाके बैयाँ - साहिब बीबी और ग़ुलाम (1962)

तन्हाई दिल की पुर-दर्द आवाज़ बन जाती है 
जिया बुझा-बुझा नैना थके-थके---कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ - साहिब बीबी और ग़ुलाम (1962)

आवाज़ का अंदाज़ बदलने लगा। आवाज़ आवाज़ न होके एक दर्द, एक टीस बन गई।
आज की काली घटा - उसकी कहानी (1966)

 और फिर जो उसकी जान था वही जाँ से जुदा हो गया -
मुझे जाँ न कहो - अनुभव (1971)

आवाज़ चली गई, एक राज़ रह गया - कोई चुपके से आके, सपने जगाके बोले के, मैं आ रहा हूँ - कौन आए ये मैं कैसे जानूँ ?
कौन आया जो वो आवाज़, वो दिलकश सदा, सदा के लिए अपने साथ ले गया? कोई जानता है ये राज़?

कोई चुपके से आके - अनुभव (1971)